त्योहार की भीड़, भावनाएं चरम पर, और बीच में एक टीवी अभिनेत्री के साथ धक्का-मुक्की—मुंबई की सबसे लोकप्रिय गणेश आस्थाओं में से एक पर ऐसा वीडियो सामने आए तो सवाल उठना तय है। कुमकुम भाग्य में ‘खुशी’ का किरदार निभाने वाली सिमरन बुधरूप ने बताया कि 12 सितंबर 2024 को उनके साथ लालबागचा राजा पांडाल में बाउंसरों ने हाथापाई की और उनकी मां का फोन छीन लिया। वीडियो सोशल मीडिया पर तेज़ी से फैल गया, और बहस सिर्फ एक वायरल क्लिप तक सीमित नहीं रही—यह भीड़ प्रबंधन, सुरक्षा और श्रद्धालुओं के सम्मान जैसे बड़े मुद्दों तक पहुंच गई।
घटना क्या हुई
सिमरन के मुताबिक, गणेश चतुर्थी के दौरान वे अपनी मां के साथ मुंबई के Lalbaugcha Raja (लालबागचा राजा) में दर्शन के लिए पहुंचीं। वहां मौजूद महिला बाउंसरों ने कथित तौर पर उन्हें और उनकी बुज़ुर्ग मां को बार-बार धक्का दिया। सिमरन का कहना है कि इस धक्का-मुक्की में उनकी मां के हाथ से मोबाइल फोन भी छीना गया। उन्होंने पूरा घटनाक्रम इंस्टाग्राम पर एक वीडियो के साथ साझा किया और पांडाल प्रबंधन पर सख्त लहजे में सवाल उठाए।
वीडियो में भीड़ का दबाव दिखता है और सुरक्षा कर्मियों की आक्रामकता भी। सिमरन ने लिखा कि धार्मिक स्थल पर इस तरह का व्यवहार स्वीकार नहीं किया जा सकता, खासकर तब जब श्रद्धालु शांति से दर्शन के लिए आए हों। उन्होंने साफ कहा कि पहचान या लोकप्रियता यहां मुद्दा नहीं है—मुद्दा यह है कि हर आगंतुक के साथ गरिमा से पेश आया जाए।
वीडियो में जो बातें साफ दिखती हैं:
- भीड़ में आगे बढ़ने की कोशिश के दौरान महिला बाउंसरों का धक्का देना।
- सिमरन की मां का संतुलन बिगड़ना और आसपास के लोग बीच-बचाव करते नजर आना।
- फोन हाथ से जाने को लेकर शोर-शराबा और अफरातफरी।
- सिमरन का बार-बार संयम बनाए रखने की अपील करना।
यह सब उस समय हुआ जब गणेश चतुर्थी के बीच पांडाल में रोज़ाना भारी भीड़ उमड़ रही थी। मुंबई में इस पांडाल की लोकप्रियता ऐसी है कि लंबे इंतजार और कड़ी सुरक्षा के बावजूद दर्शन के लिए लोग आते हैं। इसी माहौल में ज़रा सी चूक या सख्ती की हद पार करना किसी के लिए भी खतरनाक बन सकता है।
सोशल मीडिया पर यह पोस्ट आते ही समर्थन में टिप्पणियों की बाढ़ आ गई। कई यूज़र्स ने बाउंसरों के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए और पांडाल समिति से जवाब मांगा। टीवी इंडस्ट्री से भी प्रतिक्रियाएं आईं। इससे पहले देवोलीना भट्टाचार्जी भी इसी पांडाल में भक्तों के साथ व्यवहार पर सवाल उठा चुकी हैं। यह बताता है कि शिकायतें एक-दो घटनाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि भीड़ प्रबंधन और प्रशिक्षण से जुड़े पुराने सवाल फिर सामने हैं।
सवाल यह भी है कि क्या भीड़ संभालने के नाम पर सुरक्षा कर्मियों की शक्ति की सीमा तय है? धार्मिक स्थल पर सुरक्षा जरूरी है, लेकिन गरिमा और संवेदना उससे अलग नहीं हो सकतीं। यही वह पतली रेखा है जहां घटना जैसी स्थितियां जन्म लेती हैं—जब हंगामे से बचने की कोशिश में सुरक्षा आक्रामक हो जाए और श्रद्धालु असुरक्षित महसूस करें।
खबर लिखे जाने तक आयोजन समिति या मंडल की तरफ से इस मामले पर कोई औपचारिक बयान सामने नहीं आया था। पुलिस का भी कोई आधिकारिक अपडेट नहीं आया, इसलिए जांच या कार्रवाई पर कहना जल्दबाजी होगी। लेकिन वीडियो और सार्वजनिक चर्चा ने कम से कम इतना तो साफ कर दिया है कि पांडाल में भीड़ और सुरक्षा के बीच संतुलन बिगड़ता दिख रहा है।

भीड़, सुरक्षा और जिम्मेदारी: व्यवस्थापन कहां चूकता है
लालबागचा राजा जैसे बड़े पांडालों में रोज़ लाखों भक्त आते हैं। लंबी कतारें, अलग-अलग प्रवेश मार्ग, वीआईपी और सामान्य दर्शन के रास्ते, महिला-पुरुष सुरक्षा कर्मी—सब कुछ एक बड़े ऑपरेशन जैसा होता है। ऐसे में किसी भी समय भीड़ का दबाव बढ़ सकता है और सुरक्षा टीम को सख्ती करनी पड़ती है। पर यही वह जगह है जहां प्रशिक्षण और संवेदनशीलता की परीक्षा होती है।
सुरक्षा प्रबंधन में आमतौर पर कुछ बुनियादी सिद्धांत होते हैं—स्पष्ट मार्ग, साफ निर्देश, कतार के मोड़ पर प्रशिक्षित मार्शल, और संचार की स्पष्ट प्रणाली। जब किसी स्थान पर एक साथ बहुत लोग पहुंच जाते हैं, तो प्राथमिकता होती है कि बिना हाथापाई किए भीड़ को धीमा किया जाए और दिशा बदलकर प्रवाह को नियंत्रित किया जाए। अगर यहां संचार टूट जाए या कर्मियों को ‘न्यूनतम बल’ की ट्रेनिंग न मिले, तो धक्का-मुक्की का खतरा बढ़ जाता है।
आयोजक और सुरक्षा टीम की ज़िम्मेदारियां भी स्पष्ट हैं। धार्मिक स्थल की गरिमा बनाए रखना, वरिष्ठ नागरिकों, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को सर्वोपरि रखना, और विवाद की स्थिति में निपटने के लिए एक शिकायत तंत्र उपलब्ध कराना—ये सब बुनियादी बातें हैं। ऐसी जगहों पर एक ऑन-ग्राउंड शिकायत डेस्क, महिला सहायता डेस्क, और निगरानी के लिए बॉडी-कैमरा या क्लोज-अप सीसीटीवी की व्यवस्था आमतौर पर मददगार साबित होती है।
कई बड़े आयोजनों से सीखी गई अच्छी प्रथाएं बताती हैं कि स्पष्ट कमांड-एंड-कंट्रोल और शांत, प्रशिक्षित संवाद भीड़ को संभाल लेते हैं। ‘हाथ हटाओ’ या ‘धक्का दो’ जैसे आदेश माहौल बिगाड़ते हैं, जबकि ‘धीरे चलें’, ‘लाइन बनाए रखें’, ‘सामने चलिए’ जैसे छोटे लेकिन तय शब्द तनाव कम करते हैं। यह सिर्फ भाषा नहीं, संस्कृति की बात भी है—श्रद्धालु को सम्मान मिले, सुरक्षा कर्मी को अधिकार मिले, और दोनों अपनी-अपनी हद समझें।
इस विवाद ने एक और मुद्दा उठाया—वीआईपी बनाम सामान्य दर्शन। कई श्रद्धालु सालों से शिकायत करते रहे हैं कि वीआईपी मूवमेंट के समय सामान्य कतार रोक दी जाती है, जिससे अचानक धक्का लगता है। यह भीड़ की मनोविज्ञान से जुड़ा मसला है। जब प्रवाह रुकता है, तो पीछे से दबाव बढ़ता है और पहली पंक्ति पर खड़े लोग जोखिम में आते हैं। इसका हल है समयबद्ध स्लॉट, स्पष्ट घोषणा, और वीआईपी वॉकथ्रू के दौरान पहले से बनाई गई बफर लाइनें।
अगर आप भी ऐसे बड़े पांडाल में जा रहे हैं, तो कुछ व्यावहारिक बातें आपकी मदद कर सकती हैं:
- किसी भी धक्का-मुक्की में घबराएं नहीं, दीवार या बैरिकेड से चिपक कर रुक जाएं और भीड़ का दबाव कम होने दें।
- अपना फोन और छोटे कीमती सामान क्रॉस-बॉडी बैग या चेन-स्टाइल केस में रखें।
- परिवार के बुज़ुर्गों या बच्चों को कतार के किनारे या बीच में रखें ताकि वे सीधे धक्के से बचे रहें।
- किसी विवाद की स्थिति में शांत रहें, जगह बदलें, और मौके के सुपरवाइजर को बुलाएं।
- जरूरत हो तो आपातकालीन नंबर 112 पर कॉल करें या नज़दीकी पुलिस चौकी से संपर्क करें।
भीड़ प्रबंधन का विज्ञान बताता है कि ‘कम्युनिकेशन’ सबसे बड़ा औज़ार है। पब्लिक एड्रेस सिस्टम पर लगातार छोटी-छोटी घोषणाएं, सूचना पट्ट, फर्श पर दिशात्मक संकेत, और प्रशिक्षित महिला व पुरुष मार्शल—ये सब मिलकर तनाव घटाते हैं। इसके बिना किसी एक कर्मचारी के हाथ में अत्यधिक शक्ति देना, और फिर उससे संवेदना की उम्मीद करना, अक्सर जोखिम बन जाता है।
कानूनी पहलू भी यहां जुड़ता है। अगर किसी से धक्का-मुक्की हो, चोट लगे, या सामान छीना जाए, तो पीड़ित पुलिस में शिकायत दर्ज करा सकता है। वीडियो, टाइम-स्टैम्प, और गवाह—ये सब साक्ष्य के तौर पर मददगार होते हैं। धार्मिक स्थल पर भी कानून उतना ही लागू होता है जितना किसी दूसरी सार्वजनिक जगह पर। इसलिए आयोजकों के साथ-साथ सुरक्षा एजेंसियों का यह दायित्व है कि वे शिकायतों को गंभीरता से लें और आवश्यक कार्रवाई करें।
सिमरन के मामले में अभी कई चीजें स्पष्ट नहीं हैं—जैसे उस समय भीड़ का दबाव कितना था, किस आदेश पर सुरक्षा टीम ने हस्तक्षेप किया, और फोन छीने जाने के दावे पर मौके पर मौजूद जिम्मेदार अधिकारी की क्या भूमिका रही। ये सब बिंदु किसी भी निष्कर्ष से पहले तथ्यात्मक जांच मांगते हैं। लेकिन इतना साफ है कि वीडियो और आरोपों ने बहस को सही दिशा में धकेला है—सुरक्षा बनाम सम्मान की बहस, जिसकी कीमत सबसे पहले आम भक्त चुकाता है।
आगे क्या? आयोजन समिति की आधिकारिक प्रतिक्रिया का इंतजार है। अगर वे सामने आकर घटनाक्रम, सुरक्षा प्रोटोकॉल और सुधारात्मक कदमों पर पारदर्शी जानकारी दें, तो भरोसा वापस आता है। सुरक्षा कर्मियों के लिए ‘न्यूनतम बल’ और ‘डि-एस्केलेशन’ पर रिफ्रेशर ट्रेनिंग, भीड़ के पीक आवर्स में अतिरिक्त महिला मार्शल, और एक सक्रिय शिकायत डेस्क—ये कदम तुरंत लिए जा सकते हैं। साथ ही, सोशल मीडिया पर फैले वीडियो की सत्यता की जांच और तथ्यों का साफ-साफ ब्योरा देना भी उतना ही जरूरी है, ताकि अफवाहों की जगह जानकारी ले सके।
जब आस्था के सबसे बड़े केंद्रों में से एक ऐसा सवालों के घेरे में आता है, तो उसका असर शहर भर की व्यवस्थाओं पर पड़ता है। यह सिर्फ एक वायरल वीडियो नहीं, एक मौका है—हम अपनी धार्मिक-जन व्यवस्थाओं को और मानवीय, सुरक्षित और जवाबदेह बना सकते हैं। और यही वह कसौटी है जिस पर किसी भी बड़े आयोजन की परिपक्वता नापी जाती है।